मैं ज़िंदा हूँ शायद, क्या पता,
न सबूत न ही नामोनिशाँ,
कुछ लफ्ज़ हैं उड़ते रहते हैं,
मेरी साँसें बन जाया करते हैं।कभी गुटरगूँ किन्हीं पंछियों की,
खामोशियाँ कभी वादियों की,
कभी इन हवाओं की सरसराहट,
कभी किसी के आने की मंद आहट,झिलमिल सितारों की घनी चादर,
कभी किसी के मन में किसी का आदर,
कभी रात सुहानी औ चँद्रमा,
कहीं किसी को ढकता आसमाँ,कभी कहीं पे इच्छाओं का अभाव,
कहीं मन में उमड़ता प्रेम भाव,
कहीं भरी दोपहर न रौशनी,
कहीं सर्द निशा जीवन बनी,कहीं किसी के मकसद बड़े बड़े,
कहीं पर्वत थक गए खड़े खड़े,
कहीं नदी ने सीखा बहना फिर,
कोई दुनिया आया घूम-फिर,ये किस्से, इन जैसे हज़ार,
मैं खड़ी तकती हूँ बीच बज़ार,
जब ये मोती से जड़ जाते हैं,
मेरा जीवन जीना कहलाते हैं।-वैदिका काशीकर
Keep it Vaidika.
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Keep it up Vaidika.
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Brilliant
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कभी कहीं पे इच्छाओं का अभाव,
कहीं मन में उमड़ता प्रेम भाव,
You know me soooooo gooood..
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